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PADMAAVAT


Padmaavat movie director: Sanjay Leela Bhansali
Padmaavat movie rating: 2.5 stars

All those agitating over how Sanjay Leela Bhansali’s Padmaavat would trample all over Rajput pride, you may rest easy: the director didn’t need a memo from the Karni Sena and all the other self-styled ‘armies’ on keeping it ‘sanskaari’ — his entire film is a relentlessly opulent, magnificently-mounted paean to Rajput ‘aan baan shaan’. And, whichever way you slice and dice it, and Bhansali is a master at grandstanding, to the pernicious practice of ‘sati’.

Here’s how it goes, just in case you are one of those rare people who haven’t been breathlessly following the film’s troubles: the Rajput king Ratan Singh (Kapoor) is the hero, the Muslim invader Alauddin Khilji ( Singh) is the villain, and the object of their mutual adoration is the utterly gorgeous Padmavati, who will always and forever be a good Indian girl, and later, wife. When we see her first, she is fleet of foot and clear of eye, a joyous free spirit who has a will of her own. She ends up committing ‘jauhar’, her life and death circumscribed by male notions of honour.

If that’s not patriarchy, then I’m Queen Padmavati, who of course did not exist. And while we, of course, cannot judge the actions of the dramatis personae who presumably lived in the 13th century (even if they were mythical creatures, created by the poet Malik Mohammad Jayasi) by present-day gender roles, we do see that the director has a problem on his hands: how do you show a beautiful queen jumping into a pyre, along with hundreds of her compatriots (a cringe-making shot has a pregnant woman and a little girl), without glorifying the act?

One way of doing it is to stuff the beginning and the middle acts with so much glitter and glamour that we are expected to be swept away. Which we dutifully do: there’s a kind of beauty in the way Bhansali creates his frames. I liked the fact that, unlike in his Devdas and Bajirao Mastani, where we are constantly distracted by the scenery, here we are aware of it as background, as it should be: the characters are foregrounded, as they should be. But there’s only so much lavishness the eye can take before being overwhelmed.

It helps that Deepika Padukone, who never been lovelier, wears those stunning costumes, never letting them wear her, even if her waist is decorously covered in the Ghoomar song (alert viewers may see a flash of the said body part in other parts of the film). Shahid Kapoor sports kohl in his eyes, and clearly articulated muscles in his chest, often left bare. But his role is not articulated enough: he is left spouting rousing dialogue about Rajput valour. Much more visible is Jim Sarbh, deliciously camp in his portrayal of the slave Malik Kafur, who looks with such louche longing at Khilji. But this film belongs, far and away, to Ranveer Singh’s Khilji, who bites into mounds of meat (serving well the prototype of the Muslim savage ) and his part with such relish that you can taste it.

If it hadn’t been for the extreme reactions from a bunch of extreme reactionaries-cum-buffoons which nearly derailed the release the film, Padmaavat would have been just another Bhansali extravaganza, full of costumery and puffery. But given that all art is political, even if it is dressed up art, Padmaavat becomes more than it is, because the director chooses to heavily outline the vileness of his antagonist, and underline the ‘pati-vrata ness’ of Rani Padmavati. Far from any subtle touches, Bhansali’s black-and-white delineation of the good Hindu and the bad Muslim (who could also, gasp, swing both ways) is so stark that that we are left with no illusion about which part of the political firmament he wants to be on the right side of.

Finally, and we can’t get away from this, the question for us while watching this fresh version of the oldest tale in the book – ‘ek tha raja, ek thi rani, dono mar gaye, khatam kahani’—is, how do we deal with the fact of a woman being forced to jump into a pyre to save the ‘honour’ of her husband, and her people?

Of course, Padmaavat is spectacular: no one can do spectacle like Bhansali. This was what he was born to do. You can easily delight in it while the going is good. But nearly three hours of it, and looping rhetoric around what constitutes Rajput valour can and does become tiresome. And that compulsion to make ‘sati’ so good-looking, when the singeing of flesh can be so gruesome, is troubling.

If there’s one thing that keeps us from brooding too much through the film, it is Ranveer Singh. Not once does he try to make us like him, and that makes us like him even more. As a performer, his chief asset has been his unpredictability, in a good way. As Bhansali’s scarred, manically-over-the-top Khilji, he is electric. And try as anyone might, so is the attraction between the galloping outsider and the lovely queen: it is their doomed love story, whose embers rain on the screen, that we take away with us.
स्टारकास्ट- दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर, रणवीर सिंह, जिम सरभ, अदिति राव हैदरी, राजा मुराद, अनुप्रिया गोयनका अवधि- 2 घंटा 43 मिनट निर्देशक- संजय लीला भंसाली निर्माता- संजय लीला भंसाली लेखक- संजय लीला भंसाली, प्रकाश कपाड़िया अच्छी बातें- सेट डिजाइन, सिनेमेटोग्राफी, बैकग्राउंड स्कोर, किरदारों की शानदार अदाकारी और क्लाईमैक्स बुरी बातें- फिल्म की लंबाई और ढ़ीली पटकथा प्लॉट पद्मावत कहानी है जुनून और झक्कीपन की। फिल्म की शुरुआत होती है जलालुद्दीन खिलजी (रज़ा मुराद) के बैठक से। जहां वह दिल्ली की सल्तनत पर राज़ करने की योजना बना रहा होता है। तभी बैठक में एक शुतुरमुर्ग लिए आगमन होता है जलालुद्दीन के भतीजे अलाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) का। दुनिया की हर नायाब वस्तु को हासिल करने की चाह रखने वाला अलाउद्दीन अपने चाचा से उनकी बेटी महरूनिसा (अदिति राव हैदरी) का हाथ मांगता है। इधर निकाह होता है.. उधर अलाउद्दीन की दरिंदगी बढ़ती जाती है। कुछ घटनाओं के बाद वह अपने चाचा की हत्या कर सल्तनत का राजा बन जाता है। इधर, मेवाड़ के राजा महारावल रतन सिंह (शाहिद कपूर) सिंघल देश जाते हैं। जहां की राजकुमारी पद्मिनी (दीपिका पादुकोण) से उन्हें पहली नजर में प्यार हो जाता है। कुछ दिनों के प्रेम प्रसंग के उपरांत उनकी शादी हो जाती है और महारावल पद्मावती के साथ वापस मेवाड़ आ जाते हैं। मेवाड़ में रतन सिंह के राज पुरोहित राघव चेतन को एक जुर्म में देश निकाला दे दिया जाता है। जिसके बाद अपमान का घूंट पीकर वह अलाउद्दीन खिलजी के पास पहुंच जाते हैं और उसके सामने पद्मावती के अलौकिक सौंदर्य की चर्चा करते हैं। हर नायाब चीज़ को मुट्ठी में करने वाला अलाउद्दीन रानी पद्मावती को पाने की चाह में मेवाड़ पर हमला कर देता है। लेकिन जब युद्ध से बात नहीं बनती तो वह महारावल रतन सिंह को बंधक बना दिल्ली ले आता है। वह मेवाड़ के सामने शर्त रखता है रानी पद्मावती से एक मुलाकात के बाद ही वह राजा को रिहा करेगा। पद्मावती को पाने की सनक उसके सिर चढ़कर बोलती है। लेकिन पद्मावती का दावा है कि अलाउद्दीन को क्षत्राणी रानी पद्मावती तो क्या.. उसकी परछाई भी नसीब नहीं होगी। बहरहाल, फिल्म के सेकेंड हॉफ में रानी पद्मावती की राजनीतिक समझ बूझ को दिखाते हुए कहानी को आगे बढ़ाया गया है। लेकिन फिर रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच युद्ध में किसकी जीत होती है.. कैसे होती है? क्या अलाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मावती की एक झलक भी मयस्सर हो पाती है? इसकी कहानी है पद्मावत। निर्देशन यदि आपने संजय लीला भंसाली की पिछली फिल्में देखी हैं तो आपको कहीं ना कहीं यहां दोहराव मिलेगा। फिल्म की पटकथा को थोड़ा और कसा जा सकता था। साथ ही किरदारों के बुनावट में भी एक अधूरापन दिखता है। मलिक कफूर के किरदार में जिम सरभ प्रभावी बनते बनते रह जाते हैं। फिल्म में राजपूत आन बान शान का इतनी बार बखान किया है कि करणी सेना वाले कहीं लज्जा में जौहर ना कर लें। पद्मावत लगभग 3 घंटे लंबी फिल्म है। लेकिन हैरानी वाली है कि तीन घंटों में भी आपको किसी किरदार से जुड़ाव महसूस नहीं होगा। ना दुख, ना खुशी, ना अफसोस, ना प्यार.. फिल्म देखकर इनमें से कोई भी भाव टिककर नहीं आ पाता। फिल्म का फर्स्ट हॉफ कुछ दूरी तक तेजी से आगे बढ़ता है, लेकिन फिर थोड़ी सी स्थिरता आ जाती है। जहां से फिल्म को कुछ मिनट कम किया जा सकता था। सेकेंड हॉफ असरदार है। फिल्म में रणभूमि के सीन जिस धमक के साथ दिखाए गए हैं, वह अद्भुत है। खासकर फिल्म के क्लाईमैक्स को शानदार तरीके से दिखाया गया है। जब मेवाड़ की सभी औरतें रानी पद्मावती समेत जौहर करने की प्रक्रिया कर रही होती हैं तो आप दिल थाम लेते हैं। यहां बैकग्राउंड स्कोर इतना असरदार है, जैसे आपको आगे होने वाली अनहोनी की संकेत दे रहा हो। अदाकारी फिल्म में हर मुख्य किरदार को अपना अपना समय दिया गया है, जहां वे अपने अभिनय का जौहर दिखा सकते हैं। रानी पद्मावती के किरदार में दीपिका पादुकोण सशक्त लगी हैं। पूरी फिल्म में पद्मावती की खूबसूरती का बखान है और दीपिका अपने चेहरे से ही नहीं.. बल्कि चाल ढ़ाल से भी वह दिखाने में सफल रही हैं। वहीं, शालीन लेकिन कठोर राजा महारावल रतन सिंह के किरदार में शाहिद कपूर भी अच्छी कोशिश करते दिखे हैं। लेकिन पूरी फिल्म जिसके इर्द गिर्द घूमती है.. वह है अलाउद्दीन खिलजी। रणवीर सिंह ने इस किरदार को जीवंत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन कहीं कहीं उन्हें अपने डॉयलोग्स पर थोड़ी और मजबूती लानी चाहिए थी। रज़ा मुराद, अदिति राव हैदरी, जिम सरभ और अनुप्रिया गोयनका अपने अपने किरदारों में प्रभावी हैं। नीरजा और राबता के बाद जिम सरभ को मलिक कफूर के किरदार में देखना अच्छा लगा। निर्देशक ने उन्हें हाव भाव से खेलने का खूब मौका दिया। बाकी के सपोर्टिंग किरदार भी अपने काम में बेहतरीन रहे हैं। तकनीकी पक्ष फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर शानदार है और आपको 'भंसाली' फिल्म देखने का अहसास दिलाते हैं। बता दें, फिल्म को 3डी में दिखाया गया है, जिसकी क्वालिटी और बेहतर की जा सकती थी। साथ ही फिल्म के लंबाई को थोड़ा और कम किया जा सकता था। सेट डिजाइन की बात करें तो यह बॉलीवुड बेहतरीन फिल्मों में शामिल हो सकती है। फिल्म की शुरूआत फ्रेम से लेकर आखिरी फ्रेम तक भव्यता दिखेगी। संगीत फिल्म का संगीत दिया है संजय लीला भंसाली ने ही। देवदास हो या बाजीराव या रामलीला.. संजय लीला भंसाली के फिल्मों की जान होती है संगीत। लेकिन पद्मावत की संगीत यादगार नहीं है। 'घूमर' तो फिल्म रिलीज से पहले ही बच्चे बच्चे की जुबां पर चढ़ चुका है। वहीं, एक दिल एक जान भी कानों को सुकून देता है। खली बली गाना फिल्म में क्यों था.. इसका जवाब तो शायद भंसाली ही दे पाएं। बाकी गाने फिल्म में कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ते। देंखे या ना देंखे यदि आप संजय लीला भंसाली की फिल्मों के फैन हैं.. तो यह फिल्म आपके लिए MUST WATCH है.. क्योंकि फिल्म की हर सीन में भव्यता है। साथ ही दीपिका, रणवीर और शाहिद के सच्चे अभिनय को अनदेखा करना सही नहीं है। फिल्म के हर सीन में मेहनत की गई है और वह आपको बड़े पर्दे पर बखूबी दिखेगी। 

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