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Shubh Mangal Zyada Saavdhan







STORY: Salesmen Aman Tripathi (Jitendra Kumar) and Kartik Singh (Ayushmann Khurranna) find love in the capital city of Delhi, where they live in oblivion and their relationship grows and blossoms without being frowned upon. However, problems start to crop up when the two decide to go back to Allahabad and convince Aman's orthodox parents for their approval.

REVIEW: Kartik comes out to his 'lohar' father as a teenager and faces the brunt of it head-on, and so the thought of being judged and the idea of being ridiculed does not bother him much. But, his small-towner partner Aman dreads the mere thought of an ugly confrontation with his folks. While Kartik is still hopeful that his passion-filled romance will melt the Tripathais, Aman knows better ⁠— the chance of a collective acceptance is next to impossible!

The opening scene of this romantic comedy manages to squeeze a wide smile out of you, such is the filmy charm of a flamboyant Kartik and his uptight, yet personable, lover Aman. The couple is seen chasing a train to Allahabad, where they are headed for an uphill battle with the latter's family and the society's conventional mentality in general.

Writer-director Hitesh Kewalya's 'Shubh Mangal Zyada Savdhaan' is no straight-talker, instead, it takes time to build up and heighten the drama. And subsequently, madness ensues following a steamy make-out session gone horribly wrong. Aptly, the setting is Allahabad and Aman ⁠— the ladla beta ⁠— is expected to clear the debt of his 'father's sperm for the rest of his life' by marrying an overtly coy Kusum, who is yet another character stitched into the narrative for emphasising on the buried desires of a submissive two-tier city girl — works for that cinematic effect.

The mood and tone is essentially satirical and puny, laced with melodrama that works at times but feels a little too far-fetched on several occasions. Also, since the film is primarily invested in the small-town drama pertaining to the taboo around same-sex relationships, the writer-director fails to tap on the elements exclusive to small cities like Allahabad, and restricts the plotline to one conventional family. While ignoring the enigma of the holy city and all that it has to offer in terms of visual and cinematic experience, the director snatches away the potential of SMZS being a believable watch.

But, Ayushmann Khuranna's depiction of the smooth-talking, with a devil-may-care-less attitude, Kartik is a delight to watch on screen and he more than makes up for the damage. His unabashed ability to love at all times grows on you, and his on-screen characteristic trait of being hilarious at odd, awkward moments is what makes him the right fit for this role. And, walking shoulder to shoulder with the eccentric Kartik, is Jitendra Kumar's demure and docile Aman: if Ayushmann highjacks the film with his infectious energy, a mellow Jitendra balances it out with his poker-faced humour and the relatability factor that he maintains throughout the film; a natural.

It is noteworthy as to how well the supporting cast renders its complete (and able) support to the lead pair. Maanvi Gagroo, as the 27-year-old cousin Goggle desperately waiting for society's stamp of approval in the form of an arranged marriage, is a show-stealer in her own capacity. Gajraj Rao, as the dominating patriarch and a failed scientist, is both serious in his approach when needed, and funny, when the situation demands him to be. Likewise, Neena Gupta, as the fully-invested mother and 'aadhi adhuri' wife, delivers some of the best punch lines and gets the small-town mentality bang on. It's safe to say that the rest of the cast, too, has been handpicked with much thought.

Sure, the story has social relevance and is one that needs to be told ⁠— even if served in the form of a comedy ⁠— but will it start a conversation in two-tier cities about gay love? Perhaps not. Also, the climax is an offshoot of multiple tried-and-tested formulas, and looks like it was conjured up in tearing hurry; all too convenient. While the first half is engaging, the second half loses its sheen pretty early on and could have been trimmed down by a good 20 minutes. Thankfully, the number of songs are less but then again, none of them are hummable.

All in all, 'SMZS' will give small-town parents the much needed nudge, and maybe, in the distant future, they will have the strength to accept their offsprings for who they are. But, for now, watch it for the performances and the 'chaska' of love, with two men pouring their hearts out for the world to see and accept.


कलाकार- आयुष्मान खुराना, जितेन्द्र कुमार, नीना गुप्ता, गजराव राव, मनुऋषि चड्डा, सुनीता राजवर "रोज हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है जिंदगी में, लेकिन जो लड़ाई परिवार के साथ होती है वो सारी लड़ाइयों में सबसे बड़ी और खतरनाक होती है.." कार्तिक (आयुष्मान खुराना) जब अपने बायफ्रैंड के पिता (गजराज राव) से यह संवाद कहता है तो उसकी आंखों में बेबसी और गुस्से के साथ एक विश्वास भी झलकता है। घरवालों के सामने अपने रिश्ते को अपनाने के पहले.. कार्तिक ने अमन को कई बार कहा था- 'मेरे पिता अनपढ़ हैं.. लेकिन तेरे घरवाले तो पढ़े लिखे हैं, जरूर समझ लेंगे..' जाहिर है निर्देशक का तंज समाज के उस तबके पर था, जो पढ़े लिखे होने के बावजूद समलैंगिक रिश्ते को स्वीकार करने से कतराते हैं और इसे 'नॉर्मल' नहीं समझते। एक गे कपल को, उनके प्यार को सामान्य दिखाना, उन्हें मुखर दिखाना ही निर्देशक हितेश केवल्या की जीत है।

फिल्म की कहानी इलाहाबाद के त्रिपाठी खानदान का लड़का अमन त्रिपाठी दिल्ली में रहकर नौकरी कर रहा है। पूरा परिवार चाहता है कि अमन शादी कर ले, लेकिन अमन इस विषय से दूर ही रहता है। क्यों? क्योंकि अमन को प्यार है कार्तिक से। अमन को पूरा विश्वास है कि इनके समलैंगिक रिश्ते को परिवार की मंजूरी नहीं मिलेगी, लिहाजा वह घर से दूरी बनाकर रखता है। लेकिन चचेरी बहन की शादी में बार बार बुलाए जाने पर अमन अपने बायफ्रैंड के साथ इलाहाबाद पहुंचता है। जल्द ही अमन के पिता (गजराज राव) और मां (नीना गुप्ता) को उनके रिश्ते की सच्चाई पता चल जाती है। वो अपने बेटे की "बीमारी" दूर करने के लिए कई हथकंडे अपनाते हैं। लेकिन अमन और कार्तिक पूरे आत्म विश्वास के साथ अपने रिश्ते को स्वीकार करते हैं और उसके लिए परिवार से लड़ते भी हैं। ठीक वैसे ही जैसे हर प्रेम कहानी में होती है। यहां कुछ अलग नहीं है.. लोगों के नजरिए को छोड़कर। अमन- कार्तिक के रिश्ते को घरवाले कब, क्यों और कैसे स्वीकार करते हैं, इसी पर बुनी गई है पूरी कहानी।

अभिनय फिल्म की स्टारकास्ट मजबूत है। समलैंगिक लव स्टोरी के दो पात्र बने आयुष्मान खुराना और जितेन्द्र कुमार ने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है। पुरानी बॉलीवुड फिल्मों के अलग.. एक nosepin के अलावा आयुष्मान के किरदार में कुछ भी ऐसा नहीं किया गया है, जिससे उनमें स्त्रीत्व की झलक मिल सके। चाल ढ़ाल, हाव भाव सभी आम हैं। गजराज राव- नीना गुप्ता की जोड़ी को पिछली फिल्म में खूब प्यार मिला था। यहां भी दोनों के बीच चल रही खींचातनी ध्यान आकर्षित करती है। लेकिन उनकी कैमिस्ट्री को ज्यादा इस्तेमाल ही नहीं किया गया है। गजराज राव और उनके छोटे भाई के किरदार में मनुऋषि चड्डा की कहा-सुनी शुरुआत में अच्छी लगती है, लेकिन एक समय के बाद वह कहानी के आड़े आने लगती है। सह कलाकारों में मनुऋषि चड्डा, सुनीता राजवर, मानवी गगरू, पखुंरी अवस्थी अपने किरदारों में जंचे हैं।

निर्देशन फिल्म की कहानी कहने के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का प्रसंग उठाना काफी दिलचस्प है। समलैंगिक रिश्ते भी आम लव स्टोरी की तरह ही होते हैं, लेखक- निर्देशक हितेश केवल्या यह दिखाने में सफल रहे हैं.. और यही फिल्म की सबसे जीत है। यहां अमन और कार्तिक मिडिल क्लास परिवार से आते हैं, लेकिन समाज के डर से अपने साथी के प्रति प्यार दिखाने से कतराते नहीं है। एक उपमा के रूप में काली गोभी का संदर्भ शानदार है। खैर, इसे एक फैमिली फिल्म बनाने की कोशिश में कुछ कॉमेडी दृश्य जबरदस्ती के भी ठूंसे गए हैं, जो अटपटे लगते हैं। वहीं चूंकि फिल्म की कहानी परिवार के बीच ही घूमती है, सह कलाकारों के किरदार कुछ और निखारे जा सकते थे।

तकनीकि पक्ष समलैंगिकता जैसे विषय पर फिल्म बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है पटकथा। जिसके लिए हितेश केवल्या की तारीफ होनी चाहिए। उन्होंने फिल्म की शुरुआत से लेकर अंत तक मुद्दे को पकड़े रखा है। कॉमेडी के मामले में फिल्म कहीं कहीं जबरदस्ती हंसाने की कोशिश करती है, लेकिन विषय से भटकाती नहीं है। अपने संवाद के जरीए निर्देशक कई अहम बात बोल जाते हैं.. जैसे एक दृश्य में भूमि पेडनेकर कहती हैं- 'हमारे यहां पॉलिसी मैच्योर हो जाती है, बेटी मैच्योर नहीं होती'.. वहीं, कॉमेडी के लिए कहीं भी समलैंगिकता को निशाना नहीं बनाया गया है। निनाद खनोलकर की एडिटिंग चुस्त है। चिरंतन दास की सिनेमेटोग्राफी आपको फिल्म का हिस्सा बनने पर मजबूर कर देती है। इलाहाबाद के त्रिपाठी परिवार से आपको भी अपनापन लगेगा।

संगीत फिल्म का संगीत दिया है तनिष्क बागची, टोनी कक्कड़ और वायु ने.. जो कि बढ़िया है। गाने फिल्म को कहीं भी फंसाते नहीं हैं, बल्कि दिलचस्पी से कहानी को आगे बढ़ाते हैं। 'ऊ ला ला' और 'गबरू' को काफी पसंद किया जा रहा है।

देंखे या ना देंखे बॉलीवुड में 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' जैसी फिल्में बार बार नहीं बनतीं हैं। समलैंगिकता पर बनी यह फिल्म आपके-हमारे सोच के कई नए दरवाजे खोलती है। यह आपकी सोच को जबरदस्ती गलत नहीं बताती, बल्कि सही की ओर मोड़ने की कोशिश करती है। जैसा कि फिल्म में एक डायलॉग है- "प्यार के लिए 377 अपनी आंखों से हटाना पड़ेगा और जब तक नहीं हटेगा, हम भागते रहेंगे.." फिल्मीबीट की ओर से 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' को 3 स्टार।

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